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कविता

जूझने का दम

मालिनी गौतम


इन हकीमों में नहीं है
जूझने का दम

व्याधि फैलाने लगी
अपनी जड़ें गहराइयों में
फुनगियों के शीश गिरते
सर्द-गहरी खाइयों में
नब्ज गायब है समय की,
हाँफता बेदम

रोशनी के कुछ संदेशे लिए
रवि द्वारे खड़ा है
कूचियाँ ले कालिमा की
तम मगर पीछे पड़ा है
दाग सारे वक्त के मुँह पर
अभी कायम

कान-आँखें, मूँद कर
सेना निरर्थक लड़ रही है
है विवश राजा कि उसकी
चाल उल्टी पड़ रही है
खून से लथपथ समय की आँख
नम बस नम  


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